'अर्थपूर्ण जीवनाचा समाजात शोध' घेण्यासाठी २००६ साली डॉ. अभय आणि डॉ. राणी बंग यांनी तरुणांसाठी विकसित केलेली शिक्षणप्रक्रिया म्हणजे 'निर्माण'...

समाजात सकारात्मक बदल घडवून आणण्यासाठी विविध समस्यांचे आव्हान स्वीकारणा-या व त्याद्वारे स्वत:च्या आयुष्याचा अर्थ शोधू इच्छिणा-या युवा प्रयोगवीरांचा हा समुदाय...

'मी व माझे' याच्या संकुचित सीमा ओलांडून,त्यापलीकडील वास्तवाला आपल्या कवेत घेण्यासाठी स्वत:च्या बुद्धीच्या,मनाच्या व कर्तृत्वाच्या कक्षा विस्तारणा-या निर्माणींच्या प्रयत्नांचे संकलन म्हणजे "सीमोल्लंघन"!

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Tuesday 5 September 2017

पुस्तक परिचय-आज भी खरे हैं तालाब :अनुपम मिश्र

मध्य प्रदेश के करड़ी नामक गाँवमें मैं महिला बचत गट (SHG) के एक मिटिंगमें गया था। वहाँ एक ५५ - ६० साल के अम्मा के पैरों पर एक चित्र को गुंदा हुआ देखा। कुछ रेखाओं में बना यह चित्र 'सीता - बावड़ी' का था। अनुपम मिश्रजीद्वारा लिखित आज भी खरे हैं तालाब में सीता-बावड़ी या तालाब को शरीर पर गुंदने की प्रथा का वर्णन मिलता है। उन अम्मा के पैरोंपर गोंदा हुआ बावड़ी का चित्र बताता है कि तालाबों को पुराने लोग कितना महत्व देतें थें।
हजाह के वज़ीर असाफजाह जब दक्षिण की ओर सेना लेकर निकले थे, तो सेना का सामान उठाने हेतू लाखा बंजारा को (जिस बंजारे के पास एक लाख गाय-बैल हो) साथ लिया गया था। इतनी बड़ी सेना, लाख से ज्यादा पशु और पशुओं की देखभाल करने वाले बंजारा लोग जहाँ रुकेंगे वहाँ उन्हें कितना पानी लगेगा यह आप सोच सकते हो। जहाँ भी पानी कम मिलता वहाँ यह बंजारा लोग अपना कर्तव्य समझकर तालाब बना देते। ऐसे ही एक लाखा बंजारे ने मध्य प्रदेश में सागर नामक एक विशाल तालाब बनाया और उस शहर का नाम ही सागर हो गया। दुखद बात है कि आज यह तालाब प्रदूषित हो गया है और छोटा हो राहा है। ऐसे कुछ ऐतिहासिक घटनाओं का वर्णन ‘आज भी खरे है तालाब’ में मिलता है।
तालाब बनाने वालों को राजा की तरफ से लगान माँफी भी मिलती। कुछ पंचायतों में किसी से सजा के रूप मे वसूली गई राशि को तालाबों के मरम्मत मे लगा दिया जाता। तो कही गड़ा हुआ कोष प्राप्त होने पर राजा तालाबों के निर्माण हेतू उस कोष का उपयोग करते थे। समाज को जीवन देने वाले तालाबों को लोग निर्जीव कैसे मान लेते? तालाबों के पास ‘थूकना मना है’, ‘जूते पहनकर आना मना है’ इस तरह के सूचना फलक लगाए बिना ही लोग आदरभाव से इन नियमों का पालन करते थें। जब भी अकाल आता तो समाज अपना कर्तव्य मानकर तालाब निर्माण मे लग जाता। कम बरसात वाले राजस्थान के इलाकों में भी पानी की समस्या नहीं थी। ‘उस शहर में तो २२६ तालाब हैं’ इस तरह बड़े शहर या अबादी नापने से तालाबों को जोड़ दिया जाता था। आज तालाब सूख चुके हैं क्योंकि तालाब बनाने वाली संस्कृति और परम्परा भी सूख चुकी है।
इस किताब के ‘निव से शिखर तक’ नामक पाठ में तालाबों की छोटी से लेकर बड़ी तांत्रिकी हिस्सों का भी अभ्यास पढ़ने को मिलता है। दक्षिण में तालाबों के साथ-साथ उप्पार और वादी मान्यम्, खुलगा मान्यम्, पाटू मान्यम्, उर्नी मान्यम्, कैरी मान्यम्, वयक्कल मान्यम् आदी जिम्मेदारीयाँ भी बनती। तालाब की टूट-फूट ठीक करना, मरम्मत करना, घरों तक पानी लाना, संयोजन, नहरों की देखभाल ऐसी जिम्मेदारीयों को आपस में बाँटा जाता था। मैं इसे आज के सहभागी सिंचाई प्रबंधन (Participatory Irrigation Management) के योजना से तुलना कर देख पा रहा हूँ। सहभागी सिंचाई प्रबंधन जैसी योजना में भी इन्ही तरह से समितियाँ बनाकर जिम्मेदारियों को बाँटा जाता है। किसी लिखित स्वरूप मे न होकर भी पहले सभी कामों को निभाया जाता था और आज लिखित स्वरूप मे (So called Guidelines) होने के बावजूद भी योजनाएँ असफल दिख रही है। नहर के आखरी किसान तक पानी कभी पहुँचता ही नही
एक जमाने में देल्ली में ३५० तालाब थें। आज यहाँ पर सभी को नल योजना से पानी मिलता है। इसी तरह बड़े शहर दूर गाँव में बने तालाबों का पानी ले रहे हैं या फिर भूजल का उपयोग होता है। पुराने जमाने में समाज और राजा मिलकर तालाबों का रखरखाव करते क्यूँकि तालाबों से समाज स्वामित्व की भावना से जुड़ा हुआ था। आज तालाबों को पी.डब्ल्यू.डी के हवाले कर इस स्वामित्व की भावना को खत्म कर दिया है। १९९० में मध्य प्रदेश के देवास शहर में सूखा पड़ गया। पानीके कामके बजाय १० दिन तक दिन-रात रेल्वे स्टेशन पर काम किया गया। फिर इंदौरसे रेल मार्गसे पानी लाया गया। तालाबों पर काम और उनका रखरखाव कर पाए तो रेलसे दूधके भावमें पानी लाने की जरूरत नहीं पड़ती। इस गलती की सजा तो २०१५ में लातूर को भी देखने को मिली है। सभी बड़े शहरों को पानी चाहिए पर पानी दे सकने वाले तालाब नहीं। पानी, तालाब, समाज का इतिहास उदाहरण के साथ इस कीताब में मिलता है।
इस कीताब के पहले पाठ का आखरी वाक्य है कि ‘क्योंकि लोग अच्छे-अच्छे काम करते जाते थें’। और आखरी पाठ का आखरी वाक्य कुछ इस तरह बन जाता है -
कुछ कानों में आज भी यह स्वर गूँजता है – ‘अच्छे-अच्छे काम करते जाना’।

                                                                                               प्रतिक उंबरकर, निर्माण ६
                                                                                             pratik.umbarkar8@gmail.com

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